Wednesday, September 10, 2008

बचपन की चाह

आज संभाले भी मेरा मन
नहीं संभल रहा हैआज
फिर बचपन पाने को
मेरा दिल मचल रहा है

ना पाने कि लालच
ना खोने का ग़म था
न इर्ष्या न द्वेष
बस खुशियों का संग था
फिर से एक बार वैसा ही
बन जाने को मन चंचल हो रहा है
आज फिर बचपन पाने को
मेरा दिल मचल रहा है

था सबका मै लाडला
हर बात मेरी प्यारी थी
मेरी खुशियों के लिए सबने
अपनी खुशियाँ बारी थी
उसी लाड, उसी प्यार को
याद कर आज फिर दिल पिघल रहा है
आज फिर बचपन पाने को
मेरा दिल मचल रहा है

वो शरारत पे मेरी
सबका मुस्कराना
मेरी गलतियों को
हंसकर सबको दिखाना
फिर से वही शरारत करने को
दिल मेरा व्याकुल हो रहा है
आज फिर बचपन पाने को
मेरा दिल मचल रहा है

ना जात-पात का भेद-भाव
ना अमीरी-गरीबी का आभास था
हर कोई था मेरा दोस्त
हर दौलत मेरे पास था
फिर से वही दोस्त, वही दौलत पाने को
ये दिल जल रहा है
आज फिर बचपन पाने को
मेरा दिल मचल रहा है

ना ही कुछ कहने के लिए तैयारी
ना ही कुछ छुपाने कि जरुरत थी
खुली किताब थी जिंदगी
बसती दिल में भगवान कि मूरत थी
उसी बचपन के लिए हजार बार
जवानी लुटाने को, आज मन वेकल हो रहा है
आज फिर बचपन पाने को
मेरा दिल मचल रहा है

1 comment:

Manvinder said...

आपके भाव बहुत सुंदर हैं .....लाजवाब लिखा है....