Sunday, December 5, 2010

डरने का डर

सहमे थे हम जिस नाट्य के किस्से सुनकर 
उसी में मुझे किरदार बनाया किसने 
डरा हुआ था जो ज़माने के फकत नाम से ही 
उस डरे हुए को ज़माने में और भी डराया किसने |

अनजाने चेहरों से डरा करता था
जब मुझे होश नहीं था कोई,
फिर पहचाने चेहरों का खौफ था छाया 
कभी अपनो ने कभी गैरों ने मुझे धमकाया 
छुटता गया हुनर का दामन मुझसे 
सर पे किताबों का बोझ था आया 
अनवरत हीं पढाई की चक्की में
मेरे सारे हुनर को पिसाया किसने 
सहमे थे हम जिस नाट्य के किस्से सुनकर 
उसी में मुझे किरदार बनाया किसने |

कभी असफलता ने डराया कभी सफलता ने
कभी मुर्खता ने फसाया कभी चपलता ने
पर उसी दौर ने दोस्तों से मुझे मिलाया था 
पहली दफा दोस्तों ने ही 
मेरी खुद से पहचान कराया था ,
दुःख तो ये है की उसमे भी कुछ बेबफा निकले 
हम भी क्या करते जब नए पैकेट से भी 
कभी नकली दवा निकले 
कितने धोखे खाए होंगे उस शख्स ने
"बेबफा " लब्ज़ को था बनाया जिसने 
सहमे थे हम जिस नाट्य के किस्से सुनकर 
उसी में मुझे किरदार बनाया किसने |

हर दर्द का मर्ज़ होता है सुना है 
साकी तेरे एक जाम के पैमाने में 
कुछ मर्ज़ ऐसे भी है इस दुनिया में 
इलाज़ जिसका सिर्फ होता है तेरे मैखाने में
देर लगा दी मैंने पर यहाँ आ ही गया 
शत-शत नमन उस पथ पर्दर्शक का 
मेरे हाथों में जाम  का पैमाना था धराया जिसने 
सहमे थे हम जिस नाट्य के किस्से सुनकर 
उसी में मुझे किरदार बनाया किसने |

डरते डरते इस डर से 
बीत गई जींदगी 
अब तो इस डर को हमें डराने दो
बुरा न मान जाये कहीं 
साकी, जाम, पैमाना या मैखाना
साथ सब है तो आज हमें पी आने दो
एक दो मौके ही साल में आये हैं 
जब सारे गम साथ में मिलकर के मिटाया हमने 
सहमे थे हम जिस नाट्य के किस्से सुनकर 
उसी में मुझे किरदार बनाया किसने |
डरा हुआ था जो ज़माने के फकत नाम से ही 
उस डरे हुए को ज़माने में और भी डराया किसने |

Tuesday, August 17, 2010

विपरीत परिस्थिति

चंद लम्हों का गम होता है
सफलता का दौर कम होता है
मुस्कान मुख की खो जाती है
आँखें हर दम ही नम होती है

आगे का पथ स्पष्ट नहीं दिखता है
मंजिल भी जाकर कहीं छिपता है
इस आलम की बात क्या करें
इसमे सोना भी मिटटी के भाव बिकता है

जिनको हम अपना मानते थे
वो आज मुख मोड़ nikal जाते हैं
जो प्रिय ही नहीं , प्रियतम भी थे
व भी दिल तोड़ मुस्काते है

हर फैसले पे प्रश्नचिंह
हर चाल गलत तब लगाती है
अविश्वाश तब पनपता है
शक और क्रोध का घर सजता है

इस वक़्त को , इस दौर को
इन लम्हों को, इस आलम को
कहते है हम विपरीत परिस्थिति
पर यही वो नाजुक क्षण होते है
जब प्रस्फुटित होती है मनुष्य की वास्तविक आकृति

कहलाती है जो विपरीत परिस्थिति
वो मनुष्य का खुद से पहचान कराती है
यही वो दौर होता है जीवन में
जो मनुष्य को सुदृढ़ , सुसंकल्प और सबल बनाती है

गर उस गम को हसकर झेल लिया
असफलता के दुःख ना जीवन में मोल दिया
खोयी मुस्कान लौट फिर आएगी
आँखों की नमी ही उसमे चमक जगाएगी

पथ की बात करें हम क्या
मंजिल खुद चलकर हम तक आएगी
छू ले हम गर मिटटी को भी
तो वो सोना बन अपनी चमक दिखाएगी

वो विपरीत दौर नहीं होता
वो तो हंस मायावी होता है
जो साथ रहे वो दूध सा स्वच्छ
जो छोड़े साथ वो , पानी सा बह जाता है

गर अडिग रहे फैसले पे हम
हर चाल विजय दिलाएगी
विश्वास का दामन ना छोड़ा तो
सफलता जग में जयजयकार कराती है

याद रहे कुछ भी हो जाए
तुम शक और क्रोध से दूर रहना
और कभी यह दौर आये तो
हंसकर इसका स्वागत करना

Tuesday, August 10, 2010

हे देव!! मै मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं| भाग -१

तेरा नमन किया, स्मरण किया
वंदना किया, तुझे वरन किया
तेरे हर फैसले को उचित समझ
सदैव ही उसका आवरण किया

पर जब असफलता हीं
जीवन की कहानी बन जाए
जब ऐसे विपरीत दौर का
दिखता मुझे कोई अंत नहीं
फिर मै कैसे तेरा स्मरण करूँ
हे देव!! मै एक मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं

गर बात मुझ तक ही सिमित रहती तेरी
मै कभी भावों को मुखरित होने नहीं देता

हे देव!! मै मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं| भाग -२

कहीं सूखे की मार
कहीं बाढ़ से मची तबाही है
कहीं नक्सलियों का प्रकोप
कहीं आतंक को मिल रही बाहबाही है

हैं मंत्री भ्रष्ट , संत्री है भ्रष्ट
भ्रष्ट सौ में से ९९ अधिकारी हैं
ये कैसा असाध्य रोग लगा देश को
यहाँ तो भ्रष्ट बननेके लिए मची मारामारी है

इस तबाही का, इस प्रकोप का
भ्रष्टाचार और आतंक के तोप का
क्या होगा कभी भी अंत नहीं
हे देव !! कैसे मैं तेरा स्मरण करूँ अभी भी
मै मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं

धरती का स्वर्ग था देश का मुकुट
आज वहां जाने से भी डर लगता है
जल रहा है मेरा स्वर्ग वहां
तू आज कुछ चमत्कार क्यूँ नहीं करता है

जब मासूम बच्चो का
बन्दुक खिलौना बन जाए
मुर्गों की बांग नहीं जिनको
गोलियों की आवाज हर सुबह जगाये

तब कैसे ना स्वर्ग वहाँ से
चला जाए दूर कहीं
पर तुम तो सर्वेसर्वा हो
फिर क्यूँ बैठे हो मूक कहीं

मेरी बातें हैं सत्य प्रभु
ये कोई कहानी मनगढ़ंत नहीं
हे देव!! कैसे तेरा स्मरण करूँ अभी भी
मैं मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं

चंगेज ने पहले लूटा
फिर अंग्रेज की बारी थी
और आज भी नेता जी लुट रहे हैं
तब यकीन हुआ की वास्तव में
सोने की चिड़िया देश हमारी थी

घोटालों के अनगिनत नाम हमेशा
याद रहती सबके मुह - जुबानी है
क्योंकि देश के सामने आता
हरदिन घोटालों की, एक न एक नवीन कहानी है

इतना सब कुछ होने पर भी
कैसे होता तेरी निंद्रा का अंत नहीं
हे देव!! कैसे तेरा स्मरण करूँ अभी भी
मैं मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं

राष्ट्र मंडल खेल था
बनाने वाला अपने देश की शान
पर चमत्कार देखो तुम भी
मिल गया उसे भ्रष्ट मंडल खेल का नाम

नामकरण यहीं से शुरू हुआ नहीं
आई पी एल , इंडियन प्रिमिएर लीग से
इंडियन पैसा लीग था बना अभी
क्या सत्ता पक्ष और क्या विपक्ष
इस पैसाखोरी में है मिले सभी

वो सीना तान के कहते है हम लूटेंगे
क्योंकि हम किसी मठ के महंत नहीं
हे देव!! कैसे तेरा स्मरण करूँ अभी भी
मैं मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं


Wednesday, June 23, 2010

देश में परदेशी

अपने हीं देश में हम
आज परदेशी हो गए
जिसपे गुरुर था हमे कभी
आज वो सारे देशी हुनर
जाने कहाँ खो गए

सारे जोश , सारे जूनून
आज सुसुप्तावस्था में क्यूँ हैं
जो सपने देखे थे हमने
देश को सवांरने के ,
मेरी निंद्रा के साथ
आज मेरे सपने भी सो गए

नयी भाषा का ज्ञान मिला
बहुत अच्छा ,
नयी संस्कृति से नाता बना
बहुत अच्छा ,
पर अपनी भाषा संस्कृति के ज्ञान हीं
दूर होते चले गए
अपने हीं देश में हम
आज परदेशी हो गए

तरस जाते है घर जाने को
गाँव की गलियों में दोस्तों के साथ
धमाचौकड़ी मचाने कों,
इस दिखावे की जिंदगी जीते जीते
वास्तविक जीवन के सारे रस को गए
अपने ही देश में हम
आज परदेशी हो गए

Sunday, April 4, 2010

मै और मेरी रानी

बचपन बिता जवानी आई
साथ में कितने कहानी लाई
हसरतों के पंख लगा
मन बन मतंग लहराई

दिल में खुशियों का डेरा था
हर ख्वाब मेंएक न एक हूर का बसेरा था
सोनाली - जूही , ऐश्वर्या - माधुरी ने
मिलकर मेरे ख्वाबों को घेरा था

इन ख्वाबों के बिच में
जिंदगी गतिमान हो चलती रही
हर मोड़ पे हर मुकाम पे
कोई ना कोई कहानी मिलाती रही

स्कूल का जीवन बीत गया
पूजा जैन के इंतज़ार में
कॉलेज के दिन भी ख़त्म हो गए
साक्षी नेहा और मून सुराना से
एकतरफा प्यार में

फिर स्वाबलंबी जभुआ मैं
बहुत गजब चमत्कार हुआ
इनफ़ोसिस के मेले में भी
मुझसे नहीं किसी को प्यार हुआ

मैंने सोंचा बेटा पंकज
ये तेरे बस का खेल नहीं
ये सुपर सोनिक रॉकेट है
कोई पटना -गया लाइन का रेल नहीं

उसी दौर में समसामयिक ही
विधि अपना खेल था खेल रहा
बिना मुझसे पूछे जाने ही
दिया मेरा, मेरे रानी से मेल बना

बाबूजी ने एक दिन पूछा मुझसे
बेटा तेरी क्या मर्जी है
फोटो देख कर निर्णय ले ले
तेरे लिए भी शादी की अर्जी है

वैसे तो फोटो में लड़की सुन्दर है
पर लगाती मुझको फर्जी है
दोस्तों को भी पसंद आई पर
एक ने कहा यार कहाँ तू प्रिंस है, तेरी बीवी पेशे से दर्जी है

मैंने भी सोंचा, ना नुकुर में कही कुंवारा न रह जायुं
इसलिए शादी को मैंने हाँ कर दी
जानते थे बेटे को अच्छे से इसलिए
बाबूजी ने उससे पहले ही बात पक्की कर दी

गाँव मोहल्ले वाले खुश,
साथ में परिवार भी खुश
इक्के दुक्के को छोड़ कर,
सारे दोस्त और रिश्तेदार भी खुश

इन सब खुशियों के बिच में
मुझको बड़ी वि कट परेशानी थी
लड़की खुश है या नहीं इस रिश्ते से
मुझको इसकी खबर lagaani थी

सुन्दर है वो और है आधुनिक परिवार
दिल्ली में है जिसका घर द्वार
फैशन करना, सुन्दर दिखाना
दिखावे से है जिसको प्यार

निफ्ट जैसे प्रतिष्ठित संस्थान से शिक्षा पायी
कराती है फैशन का व्यापार
बिन देखे बिन बात किये
शादी को कैसे है तैयार

मैंने भी पता लगाने की
बात थी मन में ठानी
सुनना चाहता था मैं उसकी मर्ज़ी
उसके मुख से, उसी के जुवानी

बड़ी जुगत के बाद कही से
उसके चलते फिरते दुर्भासी यन्त्र का मार्ग मिला
सोंच विचार कर बहुत एक दिन
नंबर डायल करता घर से निकला

मन भी अशांत तन भी अशांत
धड़कने तेज़ माहौल अशांत
"हेल्लो कौन" की आवाज़ सुनकर
धड़कन , तन, मन हो गए शांत

नाम बताकर अपना मैंने भी
पूछ लिया उनका पहचान
जवाब आया की "मैं प्रकाश, ॐ प्रकाश "
तब तक मैं बन बैठा था , मूक बधिर और चेतना से अनजान

परिचय उनका ऐसा था
जैसे हो ये जेम्स बोंड का कोई खान दान
धरे के धरे रह गए मन में ही
मेरे मन के हर अरमान

मन में सोंचा यार वो प्रकाश कहाँ
मेरे जीवन का अंधियारा है
जो ले जाए मुझको आती खुशबू तक
क्या बना ऐसा कोई गलियारा है

घंटे बने दिन , दिन बने हफ्ते
हफ्ते बन गए मास
मोस्को से भैया मैसूर आ गए
पर पूरी हो सकी मेरे मन की आस

इतना सब कुछ होने पर भी
मैंने अपनी हिम्मत नहीं हारी
वलेंतैन के मौके पर
मैंने आखिरी तरी मारी

पहली बार मुझे वलेंतैन और इन्टरनेट की
उपयोगिता समझ आई
रेड रोज के फूलों के साथ
अपना संदेशा ऑनलाइन भिजवाई

मेरे इस आखिरी कोशिश ने
अपना रंग फिर दिखलाया
वैलेंतैन डे की संध्या को
एक शुक्ष्म संदेशा आया

एकबार पढ़ा , कई बार पढ़ा ,
उतने ही जोशो - जूनून से, मैंने संदेशे को हर बार पढ़ा
पढ़ रहा था मैं उसको कभी बैठकर
और कभी था मैं खड़ा
आँखें थकती नहीं थी पढ़कर
मानो उसमे था मोती जड़ा


क्या करूँ क्या ना करूँ
असमंजस की थी इस्थिति
किम्कर्ताव्यविमुध था हो गया मैं
बड़ी विकल थी परिस्थिति

अभी नहीं तो कभी नहीं
पंकज यही सुनहरा अवसर है
ऐसे मौके जीवन में विरल है
आते नहीं वो अक्सर हैं

मैंने राम का नाम ले कर
वलेंतैन डे को सलाम देकर
खुद को ऑल डी बेस्ट कहकर
इसबार मन को शांत करकर
फ़ोन का बटन दबा दिया
अगले ही क्षण मोबाइल पर चमकते नम्बर ने
रानी के दिल की धड़कन को बढ़ा दिया

उस दिन मैं था असमंजस में
आज परेशान मेरी रानी थी
ऐसा लग रहा था मानो
इतिहास दोहरा रही अपनी कहानी थी

शुभकामनायों के आदान प्रदान से
वार्तालाप का शुभारम्भ हुआ
जो रुकी नहीं कभी उस दिन के बाद
उस मोबाइल बिल की गति का प्रारम्भ हुआ

रानी ने एक दो बहाना भी किया
बड़ी मुश्किल से किसी तरह
मैंने अपनी हँसी को नियंत्रित था किया

पर ऐसे दुर्लभ मौके का
मैंने अच्छे से सदुपयोग किया
कल फिर बात करने का वादा लेकर
शुभरात्रि का पैगाम दिया

उसके बाद की गाथा को
कैसे मैं यहाँ व्यान करू
रात के दस से चार की बातों को
चंद शब्दों में कैसे व्यान करूँ

दरसल उस दिन के बाद में
बस बात चली , दिन रात चली
रिलायंस मोबाइल की महरबानी से
वैलेंतैने डे से शादी के दिन तक
७०० घंटे तक बात चली

इस बातों के दौर में
इकरार हुआ , तकरार हुआ
नोंकझोक और प्यार हुआ
इज़हार किया स्वीकार किया
बिना मिले ही हर दिन मैंने
अपनी रानी की खूबसूरती का दीदार किया

सबकी तरह मुझको भी
मेरी बीबी सबसे प्यारी है
थोड़ी -सी गुस्से में रहती है
पर मिली साथ मुझे उसका ये
खुश किस्मती हमारी है

कोशिश होगी मेरी यही की
मैं झोली में तेरी सारी
खुशियों भर दूँ
गुस्सा कभी न आये तुमको
इतना मैं तुमको प्यार कर दूँ

Friday, March 19, 2010

JOY - नाम ही काफी है

अहसास हुआ मुझे भी
पर इस अहसास का आभास अनायास है
यूँ तो मिला बहुत लोगों से
पर इस वन्दे में कुछ खास है |

शांतचित, स्पस्ट विचार
मनमोहक जिसका व्यवहार
निश्छल, निष्कपट, निर्भेदी है वो
काया से झलकती है सुसंस्कृत संस्कार |

मुख मंडल पर तेज
आँखों में छलकता प्यार
स्पष्ट वादिता जिसका हथियार
मदद के लिए सदैव तत्पर और तैयार |

इतने सदगुण हो गर किसी में
फिर कैसे न कोई आकर्षित हो
अगर साथ मिल जाए उसका
फिर मन क्यों ना प्रफुल्लित और हर्षित हो |

मेरी तो बस यही दुआ है
की आपके सपनों को साकार रूप मिले
आपके जीवन की बगिया में
जल्द ही नन्हा सा एक फुल खिले |