Saturday, April 23, 2011

जैसा देश वैसा भेष .....

ओरिगिनालिटी सेबटिकल पे गया


कट कॉपी की हो गयी है ऐश

आई फ़ोन भी जहाँ है नकली बिकता

आ गए हैं हम ऐसे देश

तो बोलो जैसा देश वैसा भेष

जैसा देश वैसा भेष .....



शंकर  जयकिशन को कौन है पूछता

आज तो प्रीतम को मिलाती है कैश

चोरी किये हुए म्यूजिक से

रहता है वो हरदम लैश

तो बोलो.... जैसा देश वैसा भेष

जैसा देश वैसा भेष .....



गुड और बैड रेलाटिव है सब

कल का बुरा आज अच्छा

कल जिसको सब झूठा कहते

आज वही है सच्चा

आज सच बोलने निकला युधिस्ठिर

पर कौरवों ने खोल दिया बिच बाजार में उसका कच्छा

देखो देखो देख को भैया

देखो झूठ की तैश

जैसा देश वैसा भेष

जैसा देश वैसा भेष

Saturday, April 9, 2011

मिला तो सिर्फ भ्रष्टाचार

आज खड़े नहीं हुए तो
लंगड़ा बन जायेगा अपना  संसार
आँख  वाले  अन्धो  को  
राह  दिखने  आया  एक  “अन्ना” इसबार
बड़े  जतन  से  बड़े लगन  से
हम  चुनते  आये  हैं   आज तक  अपनी  सरकार
उम्मीदों  के  घरोंदे  बनाये  
पर  मिला  तो  सिर्फ  भ्रष्टाचार

बहुत  पवित्र  पावन था  शब्द  राजनीती
राजनीतिज्ञ  होते  है  उसका  जीवंत  उपहार
सौप  देते  हैं  हम  देश  जिन्हें
बेझिझक , बिना  सोचे , एक  भी  बार
शर्म  आ  रही  है  आज  मुझे  
कैसे  हो  गए  वो  इतने  बे -इज्ज़त  और  बेकार
इतनी  सुन्दर  इतने  पाक  जाती  का
पर्याय  कैसे  बन  गया  है  आज  अत्याचार
 उम्मीदों  के  घरोंदे  बनाये  
पर  मिला  तो  सिर्फ  भ्रष्टाचार

लोभ  क्रोध  और  काम  से  ही
आज  उनको  है  बस  PYAR
COMMON WEALTH GAMES और  2G
हैं  उनके  CELEBRATION वाले  त्यौहार
अनगिनत  लूट  के  मेडल्स 
अर्जित  करना  ही  उनका  बन  गया  संस्कार
PAC, JPC, CBI और  CID
हैं  उनके  दोधारी  तलबार
इनकी  मदत  से  ही  तो  वो  अब  तक
हमको  मुर्ख  बनाने  का  करते  आये  है  चमत्कार
उम्मीदों  के  घरोंदे  बनाये  
पर  मिला  तो  सिर्फ  भ्रष्टाचार
लोकपाल   और  लोकायुक्त  अधिनियम  के  साथ
वो  करते  आये  हैं  वर्षो  से  खिलवाड़
सहन  शक्ति  की  सीमा  भी
छुट  गयी  है  बहुत  पीछे  इस  बार
माना  की  हम  भी  हैं  दोषी  इसके
पर  क्या  नहीं  कर  सकते  हम  अभी  भूल  सुधर
जागो  वीर  जवानों  जागो
सुनो  अपनी  दिल  की  पुकार
लहू  तुम्हारा  क्या  है  नीर  बन  गया
क्यों  नहीं  रहा  है  वो  अब  भी  तुम्हे  ललकार
उम्मीद  के  घरोंदे  फिर  से  सजायो
और  प्रण लो  की  इस  बार  मिटा  देंगे  हम  भ्रष्टाचार
  --- जय हिंद  

 

Sunday, December 5, 2010

डरने का डर

सहमे थे हम जिस नाट्य के किस्से सुनकर 
उसी में मुझे किरदार बनाया किसने 
डरा हुआ था जो ज़माने के फकत नाम से ही 
उस डरे हुए को ज़माने में और भी डराया किसने |

अनजाने चेहरों से डरा करता था
जब मुझे होश नहीं था कोई,
फिर पहचाने चेहरों का खौफ था छाया 
कभी अपनो ने कभी गैरों ने मुझे धमकाया 
छुटता गया हुनर का दामन मुझसे 
सर पे किताबों का बोझ था आया 
अनवरत हीं पढाई की चक्की में
मेरे सारे हुनर को पिसाया किसने 
सहमे थे हम जिस नाट्य के किस्से सुनकर 
उसी में मुझे किरदार बनाया किसने |

कभी असफलता ने डराया कभी सफलता ने
कभी मुर्खता ने फसाया कभी चपलता ने
पर उसी दौर ने दोस्तों से मुझे मिलाया था 
पहली दफा दोस्तों ने ही 
मेरी खुद से पहचान कराया था ,
दुःख तो ये है की उसमे भी कुछ बेबफा निकले 
हम भी क्या करते जब नए पैकेट से भी 
कभी नकली दवा निकले 
कितने धोखे खाए होंगे उस शख्स ने
"बेबफा " लब्ज़ को था बनाया जिसने 
सहमे थे हम जिस नाट्य के किस्से सुनकर 
उसी में मुझे किरदार बनाया किसने |

हर दर्द का मर्ज़ होता है सुना है 
साकी तेरे एक जाम के पैमाने में 
कुछ मर्ज़ ऐसे भी है इस दुनिया में 
इलाज़ जिसका सिर्फ होता है तेरे मैखाने में
देर लगा दी मैंने पर यहाँ आ ही गया 
शत-शत नमन उस पथ पर्दर्शक का 
मेरे हाथों में जाम  का पैमाना था धराया जिसने 
सहमे थे हम जिस नाट्य के किस्से सुनकर 
उसी में मुझे किरदार बनाया किसने |

डरते डरते इस डर से 
बीत गई जींदगी 
अब तो इस डर को हमें डराने दो
बुरा न मान जाये कहीं 
साकी, जाम, पैमाना या मैखाना
साथ सब है तो आज हमें पी आने दो
एक दो मौके ही साल में आये हैं 
जब सारे गम साथ में मिलकर के मिटाया हमने 
सहमे थे हम जिस नाट्य के किस्से सुनकर 
उसी में मुझे किरदार बनाया किसने |
डरा हुआ था जो ज़माने के फकत नाम से ही 
उस डरे हुए को ज़माने में और भी डराया किसने |

Tuesday, August 17, 2010

विपरीत परिस्थिति

चंद लम्हों का गम होता है
सफलता का दौर कम होता है
मुस्कान मुख की खो जाती है
आँखें हर दम ही नम होती है

आगे का पथ स्पष्ट नहीं दिखता है
मंजिल भी जाकर कहीं छिपता है
इस आलम की बात क्या करें
इसमे सोना भी मिटटी के भाव बिकता है

जिनको हम अपना मानते थे
वो आज मुख मोड़ nikal जाते हैं
जो प्रिय ही नहीं , प्रियतम भी थे
व भी दिल तोड़ मुस्काते है

हर फैसले पे प्रश्नचिंह
हर चाल गलत तब लगाती है
अविश्वाश तब पनपता है
शक और क्रोध का घर सजता है

इस वक़्त को , इस दौर को
इन लम्हों को, इस आलम को
कहते है हम विपरीत परिस्थिति
पर यही वो नाजुक क्षण होते है
जब प्रस्फुटित होती है मनुष्य की वास्तविक आकृति

कहलाती है जो विपरीत परिस्थिति
वो मनुष्य का खुद से पहचान कराती है
यही वो दौर होता है जीवन में
जो मनुष्य को सुदृढ़ , सुसंकल्प और सबल बनाती है

गर उस गम को हसकर झेल लिया
असफलता के दुःख ना जीवन में मोल दिया
खोयी मुस्कान लौट फिर आएगी
आँखों की नमी ही उसमे चमक जगाएगी

पथ की बात करें हम क्या
मंजिल खुद चलकर हम तक आएगी
छू ले हम गर मिटटी को भी
तो वो सोना बन अपनी चमक दिखाएगी

वो विपरीत दौर नहीं होता
वो तो हंस मायावी होता है
जो साथ रहे वो दूध सा स्वच्छ
जो छोड़े साथ वो , पानी सा बह जाता है

गर अडिग रहे फैसले पे हम
हर चाल विजय दिलाएगी
विश्वास का दामन ना छोड़ा तो
सफलता जग में जयजयकार कराती है

याद रहे कुछ भी हो जाए
तुम शक और क्रोध से दूर रहना
और कभी यह दौर आये तो
हंसकर इसका स्वागत करना

Tuesday, August 10, 2010

हे देव!! मै मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं| भाग -१

तेरा नमन किया, स्मरण किया
वंदना किया, तुझे वरन किया
तेरे हर फैसले को उचित समझ
सदैव ही उसका आवरण किया

पर जब असफलता हीं
जीवन की कहानी बन जाए
जब ऐसे विपरीत दौर का
दिखता मुझे कोई अंत नहीं
फिर मै कैसे तेरा स्मरण करूँ
हे देव!! मै एक मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं

गर बात मुझ तक ही सिमित रहती तेरी
मै कभी भावों को मुखरित होने नहीं देता

हे देव!! मै मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं| भाग -२

कहीं सूखे की मार
कहीं बाढ़ से मची तबाही है
कहीं नक्सलियों का प्रकोप
कहीं आतंक को मिल रही बाहबाही है

हैं मंत्री भ्रष्ट , संत्री है भ्रष्ट
भ्रष्ट सौ में से ९९ अधिकारी हैं
ये कैसा असाध्य रोग लगा देश को
यहाँ तो भ्रष्ट बननेके लिए मची मारामारी है

इस तबाही का, इस प्रकोप का
भ्रष्टाचार और आतंक के तोप का
क्या होगा कभी भी अंत नहीं
हे देव !! कैसे मैं तेरा स्मरण करूँ अभी भी
मै मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं

धरती का स्वर्ग था देश का मुकुट
आज वहां जाने से भी डर लगता है
जल रहा है मेरा स्वर्ग वहां
तू आज कुछ चमत्कार क्यूँ नहीं करता है

जब मासूम बच्चो का
बन्दुक खिलौना बन जाए
मुर्गों की बांग नहीं जिनको
गोलियों की आवाज हर सुबह जगाये

तब कैसे ना स्वर्ग वहाँ से
चला जाए दूर कहीं
पर तुम तो सर्वेसर्वा हो
फिर क्यूँ बैठे हो मूक कहीं

मेरी बातें हैं सत्य प्रभु
ये कोई कहानी मनगढ़ंत नहीं
हे देव!! कैसे तेरा स्मरण करूँ अभी भी
मैं मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं

चंगेज ने पहले लूटा
फिर अंग्रेज की बारी थी
और आज भी नेता जी लुट रहे हैं
तब यकीन हुआ की वास्तव में
सोने की चिड़िया देश हमारी थी

घोटालों के अनगिनत नाम हमेशा
याद रहती सबके मुह - जुबानी है
क्योंकि देश के सामने आता
हरदिन घोटालों की, एक न एक नवीन कहानी है

इतना सब कुछ होने पर भी
कैसे होता तेरी निंद्रा का अंत नहीं
हे देव!! कैसे तेरा स्मरण करूँ अभी भी
मैं मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं

राष्ट्र मंडल खेल था
बनाने वाला अपने देश की शान
पर चमत्कार देखो तुम भी
मिल गया उसे भ्रष्ट मंडल खेल का नाम

नामकरण यहीं से शुरू हुआ नहीं
आई पी एल , इंडियन प्रिमिएर लीग से
इंडियन पैसा लीग था बना अभी
क्या सत्ता पक्ष और क्या विपक्ष
इस पैसाखोरी में है मिले सभी

वो सीना तान के कहते है हम लूटेंगे
क्योंकि हम किसी मठ के महंत नहीं
हे देव!! कैसे तेरा स्मरण करूँ अभी भी
मैं मानव हूँ , कोई साधू या संत नहीं


Wednesday, June 23, 2010

देश में परदेशी

अपने हीं देश में हम
आज परदेशी हो गए
जिसपे गुरुर था हमे कभी
आज वो सारे देशी हुनर
जाने कहाँ खो गए

सारे जोश , सारे जूनून
आज सुसुप्तावस्था में क्यूँ हैं
जो सपने देखे थे हमने
देश को सवांरने के ,
मेरी निंद्रा के साथ
आज मेरे सपने भी सो गए

नयी भाषा का ज्ञान मिला
बहुत अच्छा ,
नयी संस्कृति से नाता बना
बहुत अच्छा ,
पर अपनी भाषा संस्कृति के ज्ञान हीं
दूर होते चले गए
अपने हीं देश में हम
आज परदेशी हो गए

तरस जाते है घर जाने को
गाँव की गलियों में दोस्तों के साथ
धमाचौकड़ी मचाने कों,
इस दिखावे की जिंदगी जीते जीते
वास्तविक जीवन के सारे रस को गए
अपने ही देश में हम
आज परदेशी हो गए