Wednesday, September 10, 2008

हैं बस दो दिन हीं अब बाकी

क्यूँ ऐसा छया है सन्नाट्टा
क्यूँ विराना है हर मन्जर
परेशाँ है क्यूँ हर चेहरा
हैराँ हैं क्यूँ हर दिलवर।

खमोशी और उलझन हीं
झलकती हर के माथे पर
जो सोते थे दिन में भी
वो क्यूँ जागें हैं रातों भर।

जहाँ पर चार दिन पहले [library]
कोई चेहरा न दिखता था
ऐसा जादू किया किसने
वहीं पर क्यूँ हर चेहरा नजर आए।

उलझते थे जो प्रितम के
घनेरी काली बालों में
उलझे हैं क्यूँ वो सारे
किताबों के सवालों में।

ये हैरानी ये खामोशी
ये विरानी, और उलझन
इन सबके पिछे छुपा है
बस एक ही कारण।

हैं बस दो दिन हीं अब बाकी
इम्तहाँ के शुभारम्भ होने में
मगर दिन कुछ और लग जाएगें
कई विषयों की पढाई प्रारम्भ होने में।

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