चंद लम्हों का गम होता है
सफलता का दौर कम होता है
मुस्कान मुख की खो जाती है
आँखें हर दम ही नम होती है
आगे का पथ स्पष्ट नहीं दिखता है
मंजिल भी जाकर कहीं छिपता है
इस आलम की बात क्या करें
इसमे सोना भी मिटटी के भाव बिकता है
जिनको हम अपना मानते थे
वो आज मुख मोड़ nikal जाते हैं
जो प्रिय ही नहीं , प्रियतम भी थे
व भी दिल तोड़ मुस्काते है
हर फैसले पे प्रश्नचिंह
हर चाल गलत तब लगाती है
अविश्वाश तब पनपता है
शक और क्रोध का घर सजता है
इस वक़्त को , इस दौर को
इन लम्हों को, इस आलम को
कहते है हम विपरीत परिस्थिति
पर यही वो नाजुक क्षण होते है
जब प्रस्फुटित होती है मनुष्य की वास्तविक आकृति
कहलाती है जो विपरीत परिस्थिति
वो मनुष्य का खुद से पहचान कराती है
यही वो दौर होता है जीवन में
जो मनुष्य को सुदृढ़ , सुसंकल्प और सबल बनाती है
गर उस गम को हसकर झेल लिया
असफलता के दुःख ना जीवन में मोल दिया
खोयी मुस्कान लौट फिर आएगी
आँखों की नमी ही उसमे चमक जगाएगी
पथ की बात करें हम क्या
मंजिल खुद चलकर हम तक आएगी
छू ले हम गर मिटटी को भी
तो वो सोना बन अपनी चमक दिखाएगी
वो विपरीत दौर नहीं होता
वो तो हंस मायावी होता है
जो साथ रहे वो दूध सा स्वच्छ
जो छोड़े साथ वो , पानी सा बह जाता है
गर अडिग रहे फैसले पे हम
हर चाल विजय दिलाएगी
विश्वास का दामन ना छोड़ा तो
सफलता जग में जयजयकार कराती है
याद रहे कुछ भी हो जाए
तुम शक और क्रोध से दूर रहना
और कभी यह दौर आये तो
हंसकर इसका स्वागत करना
Tuesday, August 17, 2010
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3 comments:
सुंदर अभिव्यक्ति. जरूर याद रखेंगे.
कृपया ये वर्ड वेरिफिकेशन हटा लीजिए.
bahut khub
पंकज बाबू,
जब आपकी कविता हमने पढ़ी तो हमे हमारी रचना याद आ गई जो हमने कुछ समय (एक साल) पहले http://mera-dil.blogspot.com/2009/09/ye-jahan-wo-jahan.html लिखा था|
बहुत सही कहा हैं
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